सोमवार, 30 मार्च 2020

विन्सेंट से मेरी ‘पहली मुलाक़ात’...

आज प्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वॉन गॉग की 167वीं जन्मतिथि के अवसर पर नाटक 'विन्सेंट अ फ्लैशबैक' की एक विशेष लेख साझा कर रहा हूँ...

पूजा 'विन्सेंट अ फ्लैशबैक' की प्रथम प्रस्तुति से छठवीं प्रस्तुति तक की प्रेक्षक हैं। प्रेक्षक के रूप में उनकी प्रतिक्रिया।

    अद्भुत दिन अद्भुत जगह, धान के कटोरे छत्तीसगढ़ में बसा कला का एक महान मंदिर 'इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय', यूँ तो मै यहाँ की भूतपूर्व छात्रा रही हूँ, कई दिन गुज़ारे है मैंने यहाँ, कई अज़ीज़ यादों को सँजोए, पर आज की वो तारीख़ अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण तथा रोमांचकारी थी, जिस दिन इक्कीस देशों से आए विभिन्न छापाकला के कलाकारों और विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच Indira International Imprint Art Festival के दसवें दिन याने की 11 जनवरी 2017 को एक ही छत के नीचे हम सब मिले थे कला और प्रेम के पूजारक तथा उत्तर प्रभववाद के महानायक “विन्सेंट वॉन गॉग” से, यक़ीन मानिए ये मिलना सिर्फ़ मिलना नहीं था, ये तो एक मिलन था कला और प्रेम की भूखी आत्माओं का अपने परमात्मा से, वो जो मिसाल है कला और प्रेम की उपासना का।
हम सब समय से पूर्व ही ऑडिटॉरीयम में अपनी-अपनी जगहों पर बैठ चुके थे, निःसंदेह उत्सुकता अपनी पराकाष्ठा पर थी और इतने में ही पहली घंटी बजी, हमने अपने आप को पुनः तैयार किया और अपनी उत्साही आँखो को मंच पर यूँ गाड़ लिया मानो एक पल के लिए भी हम  उस महानायक की अप्रतिम झलक को खो न दे, और इसी के साथ दूसरी और तीसरी घंटी के बजते ही मंच पर दिखता है प्रेम, आक्रोश, अवसाद, भूख, लालसा, कला की अनोखी तलाश में सरबोर एक बिरला कलाकार विन्सेंट वॉन गॉग। 
प्ले शुरू होता है और एक लय में चलते हुए अपने मोहपाश में दर्शकों को बांधे क्लाइमैक्स पर पहुँचता है, शुरू से अंत तक हर एक किरदार अपनी भूमिका निभाते हम सब को उस ऑडिटॉरीयम से निकाल कालचक्र की यात्रा कराते हुए विन्सेंट के जीवन के समक्ष कुछ यूँ खड़ा कर देता है मानो वो सबकुछ अभी इसी वक़्त हमारे सामने ही घट रहा हो, फिर चाहे वो उर्सुला का विन्सेंट को समझ ही ना पाना हो, या फिर माओ का विन्सेंट के प्रति उसकी तालीम न समझ पाने का आक्रोश या फिर गोगा का अपने मित्र से पारस्परिक विचारों और सिद्धांतो का अंतर्द्वंद या फिर प्यारे भाई थियो का तन मन धन से अपने भाई के लिए कुछ यूँ समर्पित हो जाना जो अपने आप में एक अटूट प्रेम की ज्योत को सदैव के लिए हम सब के दिलो में अमर कर दे, या फिर क्रिस्टीन का वो अनोखा स्पर्श जो विन्सेंट को झकझोर देता है। हर एक किरदार अपने में सम्पूर्ण, हर एक दृष्टांत अपने में सक्षम एक कहानी कहने को, मानो वे सब चीख़ चीख़ के बता देना चाहते है वो सबकुछ जो विन्सेंट ने जिया और महसूस किया है।
किरदारों के अलावा जो इस प्ले का अन्य मुख्य आकर्षण रहा वो है पंडवानी के साथ किया गया एक इक्स्पेरिमेंटल प्रेज़ेंटेशन, जिसमें पंडवानी गायक अपने अन्दाज़ में दर्शकों सुना रहा है विन्सेंट की कहानी, जो सहज ही संजीदगी और भावुकता भरे माहौल में भी दर्शकों के चेहरे पर मधुर मुस्कान ले आता है, हँसी ज़रूर आएगी सुन कर पर ये इक्स्पेरिमेंट मुझे कुछ इस तरह ही लगा जैसे हम ठंडी ठंडी आइसक्रीम के साथ गरमा- गरम गुलाब जामुन का मज़ा ले रहे हो।
उस पचहत्तर मिनिट में आँखे मानो झपकना ही भूल गई हो, विन्सेंट का किरदार निभा रहे डॉ.चैतन्य आठले ने जिस शिदत्त से विन्सेंट के किरदार को जिया और हमारे सामने जिस तरह उसकी तड़प और पीड़ा को पेश किया, लगा की हम सब साक्षी हो गए है उस महान घटना के जिसने हमें हमारा विन्सेंट दिया। मै हृदय से अभिनंदन करती हूँ उस महान कलाकार “विन्सेंट” तथा उसके किरदार को निभाने वाले डॉ. चैतन्य आठले का। यूँ तो हर एक किरदार ने मुझे अंदर तक छुआ है पर वो एक अन्य किरदार जिसने मुझे अपने से सबसे ज़्यादा जोड़ा, वो था विन्सेंट का प्यार भाई थियो, इतना निश्चल प्रेम, इतनी निर्मल भावना, इतना अलौकिक बंधन जो आपको मजबूर कर देगा प्रेम के उन मोतियों को अपनी आँखो से बह जाने देने के लिए जो साक्षी होते है सच्चे प्यार के, एक ऐसा प्यार जो स्वार्थ और परोपकार की भावना से कहीं ज़्यादा ऊपर हो। इस किरदार को निभाने वाले कलाकार शुभम शर्मा ने जिस तरह थियो के प्रेम और वात्सल्य को अपनी अदाकारी से प्रस्तुत किया, शायद उन भाइयों के उस प्रेम और वात्सल्य को लिखने के लिए मेरे शब्द सक्षम नहीं, पर उस प्रेम की अनुभूति सदैव ही मेरे साथ मेरे मन के पिटारे में महफ़ूज़ रहेंगी।

जब अंतिम दृश्य में अजीब आकृतियों से घिरा विन्सेंट तड़पता, बौखलाता अपनी पिस्तौल निकाल कर उसे अपने कनपट्टी पर रखता है और फिर धीरे से उसे अपने पेट पर रख कर चला देता है, तब ऐहसास होता है उसकी भूख का, फिर चाहे वो कला की भूख हो, प्रेम की भूख हो या फिर पेट की। अपनी इसी भूख के साथ वो अपनी कला और प्रेम की विरासत को दुनियाँ वालों को सौंप कर चला जाता है, और हमारे लिए एक प्रश्न छोड़ जाता है की कौन सी भूख ज़्यादा महत्तवपूर्ण होती है पेट कि, प्रेम की या फिर कला की... और इसी के साथ फ़ेड आउट होता है और सभी कलाकार हाथ में विन्सेंट की पैंटिंग्स और मोमबत्ती लिए मंच पर पुनः एक साथ आकर विन्सेंट और उसकी कला के सम्मान में खड़े हो जाते है और इसी के साथ पूरा ऑडिटॉरीयम तालियों की गूँज से सराबोर हो उठता है, तालियों की निरंतर थाप मानो हमसे कह रही हो, “सुनो अब वापस आ जाओ उस समय से” और हम सब सचेतन मन से खड़े हो जाते है उन कलाकारों के सम्मान में जिन्होंने आज हमें एक महान घटना का साक्षी बनाया। आज इस बात को साढ़े तीन साल हो गए है, पर आज अपनी अभिव्यक्ति लिखते समय मुझे यूँ लग रहा था मानो मै अभी भी उसी ऑडिटॉरीयम में बैठी ये सब पुनः देख रही हूँ। मै बधाई देना चाहूँगी इस नाटक के परिकल्पक व निर्देशक डॉ. आनंद कुमार पांडेय को जिनके अथक प्रयास और क्रिएटिव इक्स्पेरिमेंट्स के ज़रिए हमें इस मार्मिक अनुभूति का अवसर मिला, एक बार पुनः विन्सेंट की पूरी टीम को नमन और मेरा प्यार भरा सलाम… लव यू विन्सेंट 

श्रीमती पूजा उपाध्याय पाण्डेय
कला शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय
क्रमांक 02 NTPC कोरबा
kpoojaupadhyay@gmail.com
प्रथम प्रस्तुति एक छायाचित्र।  उर्सुला -माया डहरिया , विन्सेंट - डॉ. चैतन्य आठले
नाटक - विन्सेंट अ फ़्लैश्बैक 



7 टिप्‍पणियां:

  1. Adbhut tha ye lekh....bhavnaaon ko shabdon me vykt krna bahut aasaan nhi hota hamesha.... shubhkaamnaye...lekhni ko u hi banaye rakhna...

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  2. बहुत बहुत बहुत ही अच्छा प्ले है और जिस दिन मैंने इस
    प्ले को रायपुर में देखा तो मैंने अपने आप को महसूस किया एक जीवंत सिनेमा के साथ।
    मुझे वो दिन और ये " विन्सेंट अ फ्लैशबैक" हमेशा याद रहेगा।
    Love you Dr. Anand Sir & Your Team 😊💓🙏

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  3. Ye mere jeewan ka sabse behtareen natak h jiska m bhi ek chota sa hissa hu..❤️ rehearsals se lekar is natak ki prastuti hone tak aisa lagta h maano ye meri practical ki class chalrhi h jiske har ek min m mujhe kuch n kuch seekhne ko milta hi h. Dr.Anand pandey sir, Dr. Chaitanya athle sir, Adhikalp sharma bhaiya, Parmanand pandey bhaiya har waqt mujhe apna markdarshan dene k liye or itna kuch sikhane k liye tahe dill se shukriya.����, Or m ye asha karta hu ki is natak ki prastutiyan har saal lagatar hoti rhe.��

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  4. हालांकि मैंने ये नाटक नहीं देखा लेकिन बहुत समय से बहुत लोगो से इसकी बहुत तारीफ़ सुन चुका हूं और हर बार लगता है कि मौका मिलते ही इसे प्राथमिकता देते हुए जरूर देखूं और पूजा आपने अपने शब्दो से ऐसा दर्शाया है जैसे आप अभी भी अपनी आंखो के सामने नाटक देख रही हो और उत्सुकता बढ़ गई नाटक देखने की इस लेख के बाद नाटक ने लिखी हुई चीज को स्टेज पर रखा और आपने स्टेज पर रखी हुई चीज़ को लिख दिया.. खूबसूरत 👌👍🙏

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  5. Dear Puja Ek kalakar hi itna sunder varnan kar sakta he,kyoki wo apne hriday ki aankho se dekhta he.well done 💐😊

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