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रविवार, 24 मई 2020

छत्तीसगढ़ी सिनेमा का नया चेहरा… फ़िल्म- गाँजे की कली


    दोस्तों किसी ने बहुत ख़ूब कहा है, की यदि आपको अपनी जगह और अपना अधिकार चाहिए तो आपका उसे पाने के लिए सही दिशा में क़दम बढ़ाना बहुत ज़रूरी हो जात है, सिर्फ़ डिमांड करने से काम नहीं चलता, आपको ख़ुद को उस जगह के लिए तैयार कर उसके लायक भी बनना पड़ता है, और इसी दिशा में हाल ही में यूटूब पर धूम मचा रही छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘गाँजे की कली’ ने एक धमाकेदार शुरुआत की है छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अन्य सिनेमा के समकक्ष लाने में। जैसा कि हम सब जानते है कि लगभग एक डेढ़ साल से या उससे पहले से भी छत्तीसगढ़ी सिनेमा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्सों और सिनेमा घरों में अन्य बॉलीवुड फ़िल्मों के समरूप प्रसारित किए जाने की निरंतर लड़ाई लड़ रहा है, एसे में हमें चाहिए की छत्तीसगढ़ी सिनेमा के अंतर्गत अच्छी फ़िल्मे, अच्छे विषय के साथ, अच्छी अदाकारी लिए, अच्छा संगीत, अच्छे निर्देशन तथा अन्य पेशेवर बारीकियों के साथ दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, जिससे उन्हें भी बॉलीवुड सिनेमा की तरह दर्शकों का प्यार मिल सके। 
निर्देशक - डॉ.योगेन्द्र चौबे 
इस दिशा में, इन सभी बातों का सही संतुलन लिए एक बहुत ही अच्छी कोशिश के रूप में सामने आती है ‘अमृता प्रीतम’ जी की कहानी पर आधारित फ़िल्म ‘गाँजे की कली’। शुरुआत से लेकर अंत तक एक लय में आगे बढ़ती यह फ़िल्म मुख्य किरदार अघनिया के बेबाक़ व्यक्तित्व और स्त्रियों के अस्तित्व को तलाशती उसकी क्रांतिकारी सोच के आस-पास से गुज़रती है। अपने अस्तित्व को तलाशती ‘अघनिया’ कई सवालों को टटोलते अपनी आत्मनिर्भरता को अपने अन्दाज़ में बयान करते नज़र आती है, जिसमें वो हर क़दम पर समाज की रूढ़िवादिता को चुनौती देती अपनी ख़ुशी की तलाश में हर उस ढकोलसे को तोड़ती जाती है जो उसे औरत होने के भार से दबाते चले आ रहे है।
फ़िल्म में अघनिया का किरदार निभाती नेहा शर्राफ़ ने अपनी उम्दा अदाकारी से एक औरत के कई रूपों को बख़ूबी निभाया है जिससे उनके किरदार की सजीवता और भी अधिक बढ़ जाती है इसके अलावा उनके माँ की भूमिका में उपासना वैष्णव जी जो की छत्तीसगढ़ी सिनेमा का एक बड़ा नाम है बहुत ही उम्दा अभिनय प्रस्तुत किया है इसी के साथ अघनिया के पिता के किरदार में दीपक विराट तिवारी को एक बहुत ही अलग अन्दाज़ में देखा जा सकता है, जो की हबीब तनवीर जी के नया थिएटर के बहुत ही ख़ास कलाकार रहे है जिन्होंने नाटक चरण दास चोर में मुख्य भूमिका में हमेशा ही दर्शकों का ख़ूब प्यार पाया है, अघनिया के अधेड़ उम्र के पति के रूप में बहुत ही परिपक्व अभिनय का प्रदर्शन करते नज़र आते है कृष्ण कांत तिवारी जी, उसकी सहेली इमली पृथा चंद्राकर, उससे सहानुभूति रखता उसके दोस्त की भूमिका निभाई है धीरज सोनी ने जो वर्तमान में रंगकर्म में सक्रिय है, ससुराल में उसके दुःख दर्द को मरहम लगती रौताईंन के रूप में अपने हुनर को बिखेरती नज़र आती है बेहतरीन कलाकार तथा गायिका पूनम विराट तिवारी जी जिन्होंने इसी फ़िल्म में करमा करमा गीत गाया है, तथा प्रेम को तलाशती अघनिया को अपने प्यार के मोहपाश में डालता मुख्य किरदार सरदार जी की भूमिका निभाई है दुर्वेश आर्य ने, इन सभी कलाकारों के सजीव अभिनय से यह फ़िल्म एक मानक स्तर को स्थापित करती है, जो छत्तीसगढ़ी सिनेमा को एक नया रूप देने में अहम कड़ी मानी जा सकती है।
शूटिंग की एक झलक 

अभिनय के अलावा जो दूसरा बहुत ही अहम हिस्सा किसी फ़िल्म का माना जाए तो वो है उसका संगीत जिसकी पूर्ति इस फ़िल्म में भरपूर हुई है, जो सबसे ख़ूबसूरत बात इसके संगीत में है वो यह है की इसमें छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का प्रयोग बहुत ही पारंपरिक तरीक़े से किया गया है, जो इसके संगीत को और भी मनोरम बनाता है। 
अगर टेक्निकैलिटी की बात करे तो उसमें भी यह फ़िल्म अपनी उत्तकृष्टता को बनाए हुए दिखाई देती है, निर्देशन से लेकर एडिटिंग तक में  आपको इस फ़िल्म की परिपक्वता का परिचय मिलता रहेगा। इस फ़िल्म की  पटकथा भारत के प्रसिद्ध पटकथा लेखक अशोक मिश्र जी द्वारा किया गया है, इस बेहतरीन फ़िल्म का निर्देशन किया है डॉ॰ योगेन्द्र चौबे जी ने तथा कमाल की एडिटिंग का श्रेय जाता है असीम सिन्हा जी को तथा एक बेहतरीन प्रस्तुति को बनाने में अपना सहयोग दिया फ़िल्म के निर्माता अशोक चंद्राकर जी तथा आस्था कपिल चौबे जी ने और इसके अलावा सधे हुए तरीक़े से जिन्होंने इस पूरी फ़िल्म को केमरे से क़ैद किया वो है राजिब शर्मा जी।
एक बेहतरीन प्रोडक्शन के लिए एक उम्दा टीम का होना बहुत ही ज़रूरी होता है, और वो चीज़ आपको इस फ़िल्म में बख़ूबी देखने को मिलेगी, बेहतरीन टीम वर्क के साथ प्रस्तुत की गई यह फ़िल्म निःसंदेह छत्तीसगढ़ी सिनेमा के लिए एक नई दस्तक के रूप में सामने आइ है, बहरहाल अभी इस फ़िल्म का लुत्फ़ आप यूटूब पर उठा सकते है जिसका लिंक लेख के अंत में है, पर फिर भी हम उम्मीद करते है की करोना इस विकट परिस्थिति के टल जाने के बाद हमें इस फ़िल्म का लुत्फ़ सिनेमा घरों में भी उठाने का अवसर मिले और इस फ़िल्म के साथ छत्तीसगढ़ी सिनेमा में ऐसी और फ़िल्में बने ताकि छत्तीसगढ़ी सिनेमा अपने अस्तित्व की तलाश में कामयाब हो, पुनः एक नई उम्मीद, एक नई आशा के साथ इस महा विपदा के बाद छत्तीसगढ़ी सिनेमा का एक नया चेहरा, नई बेहतरीन फ़िल्मों के साथ हमें देखने को मिले यही हमारी कामना है। 


                                                                        पूजा आनंद 

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शुक्रवार, 8 मई 2020

बड़े भाई साहब मेरी नज़र से




आमतौर पर मेरा रायपुर आना जाना लगा ही रहता है, कुछ महीने पहले ऐसे ही किसी काम से कुछ एक दो दिनो के लिए मेरा रायपुर जाना हुआ उस समय मेरे पतिदेव आनंद भी वहाँ मौजूद थे, और उन्होंने ही मुझे बताया कि आज शाम को सुभाष मिश्रा भैया के स्टूडीओ थिएटर जनमंच में योगेन्द्र चौबे सर द्वारा निर्देशित नाटक बड़े भाईसाहब खेला जाना है, यूँ तो नाटक का नाम सुनते ही मेरा मन प्रसन्न हो जाता है, और क्यूँकि इस नाटक की प्रस्तुति मैंने पहले भी खैरागढ़ में देखी थी मै और ज़्यादा उत्त्साहि थी। उस दिन के अपने सारे काम हमने जल्दी-जल्दी निपटाए और समय पर हम निर्धारित स्थान पर पहुँच गए। नाटक के जल्द से जल्द शुरू होने की व्याकुलता तो हमारे अंदर थी ही, पर उसी के साथ-साथ वहाँ उपस्थित गुरुजनों, वरिष्ठ कलाकारों तथा घनिष्ठ मित्रों से मिलने की प्रसन्नता भी उतनी ही थी, सभी से मिलकर हाल चाल पूछ सभी अपने-अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गए। 
नाटक की औपचारिकता का पालन करते हुए पहली, दूसरी व तीसरी घंटी के बजते ही मंच पर एक बेहतरीन ऊर्जा के साथ शुरुआत होती है एक ऊर्जावान, मासूम और बचपने की तरोताज़गी से सराबोर, समाज की शिक्षा व्यवस्था पर ऊँगली उठाते नाटक बड़े भाईसाहब की, जो शुरू तो बहुत ही मौज मस्ती से होता है, पोशमपा भाई पोशमपा गाते हुए मंच पर कुछ बच्चे आ धमकते है, और अपनी ही मौज में उस अल्हड़ बच्च्पन को हमें दिखलाते है जो आज की स्क्रीन दुनिया में कही खो गया है, और ऐसे ही मस्ती करते कराते नाटक कुछ ऐसे संजीदा प्रश्नों को उकेरता है जो आपको ढर्रेदार शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करने पर मजबूर कर देगा, पर मज़े की बात तो ये है की इतनी संजीदगी में भी नाटक आपकी हँसी एक पल के लिए भी ओझल नहीं होने देता, अपने ही अन्दाज़ में खेला गया ये नाटक बच्चों की मस्ती, ठिठोलि, पतंगबाज़ी के बीच चुपके से आपके मन को ऐसे झँझोर देगा की आप यका यक ख़ुद से ही सवाल करने लगेंगे कि… हाँ ऐसा ही तो होता है, बिना मतलब की रट्टु तोता वाली शिक्षा प्रणाली का बोझ ढोने से।
शुरुआत से लेकर अंत तक नाटक अपनी एक मज़बूत पकड़ बनाए दर्शकों को अपने साथ कुछ ऐसे जोड़ लेता है मानो ये कहानी उन्होंने पहले भी कही देखी या सुनी हो, जो की इस नाटक के सफल मंचन को प्रत्यक्ष प्रमाणित करता है। 80 और 90 के दशक के लोकप्रिय खेल गीतों पोशमपा भाई पोशमपा के साथ एक अन्य गीत उड़ चली है मेरी पतंग, ये पतंग वो पतंग आदि का संगीतमय प्रयोग जो की डॉ. योगेन्द्र चौबे की विशेषता भी है को, बहुत ही रचनात्मक तरीक़े से नाटक में जोडा गया है, जो दर्शकों को अपने बचपन की यादों का एक बहुत ही सुखमय झरोखा प्रदान करता है, संगीत की धुन के साथ दर्शक सहजता से धीरे-धीरे सर को हिलाते झूम उठते है, जो की एक सफल निर्देशन का परिचायक है, क्यूँकि कला के बारे में ये हमेशा कहा गया है कि कोई भी कला सही मायने में तभी सफल साबित होती है जब उसका तदात्म्य दर्शक के साथ उसी तरह से बैठे जिस भाव से कलाकार ने उसकी रचना की है। संगीतमय गीतों के अलावा मंचीय कलाकारों की अदाकारी ने भी दर्शकों की ख़ूब तालियाँ और सराहना बटोरी, एक सफल अदाकारी का परिचय देते हुए, धाराप्रवाह संवाद की लड़ी मंचीय कलाकारों की उत्तकृष्टता तथा प्रभावशाली नेतृत्व को दर्शाती है।
यह मेरा सौभाग्य रहा है की इस नाटक का मंचन देखने का अवसर मुझे दो बार मिला पहली बार मैंने यह नाटक इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय में देखा था, जब मै वहाँ की छात्रा हुआ करती थी, और दूसरी बार अभी कुछ दिन पहले रायपुर में, इसके अलावा इसके कई और सफल मंचन देश के अन्य हिस्सों में हो चुके है, दर्शक के रूप में इस नाटक को देखना मेरे लिए एक बहुत ही सुखद अनुभव रहा है, क्यूँकि कही न कही मैंने भी अपने छात्र जीवन में (जब मै विद्यालय में पढ़ती थी) इस ना समझ पाने वाले भाव को जिया और महसूस किया है जब पढ़ाई के बढ़ते बोझ के साथ आप नहीं समझ पाते है की आख़िर इस रट्टु तोता वाली प्रणाली का मेरे जीवन में  भला क्या महत्व, इसलिए दर्शक की दृष्टि से ये नाटक जितना सफल है उतना समाज को आइना दिखाने की प्रक्रिया में भी यह नाटक एक अहम भूमिका निभाता नज़र आता है, जो समाज के बुद्धिजीवियों के समक्ष एक अहम सवाल को प्रदर्शित करता है। यह नाटक मुंशी प्रेम चंद जी की कहानी “बड़े भाई साहब” पर आधारित है जिसकी परिकल्पना एवं निर्देशन डॉ.योगेन्द्र चौबे जी के द्वारा किया गया है, मै इस नाटक से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति एवं गुडी रायगढ़ को बहुत बधाई देती हूँ और आशा करती हूँ की भविष्य में भी हमें ऐसे नाटक लगातार देखने को मिलते रहे, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ समाज के लिए उपयुक्त संदेश भी हो, क्यूँकि यही कला का असली ध्येय है।
छायाचित्र साभार- अख्तर अली जी के फेसबुक वाल से 

पूजा आनंद 

सोमवार, 30 मार्च 2020

विन्सेंट से मेरी ‘पहली मुलाक़ात’...

आज प्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वॉन गॉग की 167वीं जन्मतिथि के अवसर पर नाटक 'विन्सेंट अ फ्लैशबैक' की एक विशेष लेख साझा कर रहा हूँ...

पूजा 'विन्सेंट अ फ्लैशबैक' की प्रथम प्रस्तुति से छठवीं प्रस्तुति तक की प्रेक्षक हैं। प्रेक्षक के रूप में उनकी प्रतिक्रिया।

    अद्भुत दिन अद्भुत जगह, धान के कटोरे छत्तीसगढ़ में बसा कला का एक महान मंदिर 'इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय', यूँ तो मै यहाँ की भूतपूर्व छात्रा रही हूँ, कई दिन गुज़ारे है मैंने यहाँ, कई अज़ीज़ यादों को सँजोए, पर आज की वो तारीख़ अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण तथा रोमांचकारी थी, जिस दिन इक्कीस देशों से आए विभिन्न छापाकला के कलाकारों और विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच Indira International Imprint Art Festival के दसवें दिन याने की 11 जनवरी 2017 को एक ही छत के नीचे हम सब मिले थे कला और प्रेम के पूजारक तथा उत्तर प्रभववाद के महानायक “विन्सेंट वॉन गॉग” से, यक़ीन मानिए ये मिलना सिर्फ़ मिलना नहीं था, ये तो एक मिलन था कला और प्रेम की भूखी आत्माओं का अपने परमात्मा से, वो जो मिसाल है कला और प्रेम की उपासना का।
हम सब समय से पूर्व ही ऑडिटॉरीयम में अपनी-अपनी जगहों पर बैठ चुके थे, निःसंदेह उत्सुकता अपनी पराकाष्ठा पर थी और इतने में ही पहली घंटी बजी, हमने अपने आप को पुनः तैयार किया और अपनी उत्साही आँखो को मंच पर यूँ गाड़ लिया मानो एक पल के लिए भी हम  उस महानायक की अप्रतिम झलक को खो न दे, और इसी के साथ दूसरी और तीसरी घंटी के बजते ही मंच पर दिखता है प्रेम, आक्रोश, अवसाद, भूख, लालसा, कला की अनोखी तलाश में सरबोर एक बिरला कलाकार विन्सेंट वॉन गॉग। 
प्ले शुरू होता है और एक लय में चलते हुए अपने मोहपाश में दर्शकों को बांधे क्लाइमैक्स पर पहुँचता है, शुरू से अंत तक हर एक किरदार अपनी भूमिका निभाते हम सब को उस ऑडिटॉरीयम से निकाल कालचक्र की यात्रा कराते हुए विन्सेंट के जीवन के समक्ष कुछ यूँ खड़ा कर देता है मानो वो सबकुछ अभी इसी वक़्त हमारे सामने ही घट रहा हो, फिर चाहे वो उर्सुला का विन्सेंट को समझ ही ना पाना हो, या फिर माओ का विन्सेंट के प्रति उसकी तालीम न समझ पाने का आक्रोश या फिर गोगा का अपने मित्र से पारस्परिक विचारों और सिद्धांतो का अंतर्द्वंद या फिर प्यारे भाई थियो का तन मन धन से अपने भाई के लिए कुछ यूँ समर्पित हो जाना जो अपने आप में एक अटूट प्रेम की ज्योत को सदैव के लिए हम सब के दिलो में अमर कर दे, या फिर क्रिस्टीन का वो अनोखा स्पर्श जो विन्सेंट को झकझोर देता है। हर एक किरदार अपने में सम्पूर्ण, हर एक दृष्टांत अपने में सक्षम एक कहानी कहने को, मानो वे सब चीख़ चीख़ के बता देना चाहते है वो सबकुछ जो विन्सेंट ने जिया और महसूस किया है।
किरदारों के अलावा जो इस प्ले का अन्य मुख्य आकर्षण रहा वो है पंडवानी के साथ किया गया एक इक्स्पेरिमेंटल प्रेज़ेंटेशन, जिसमें पंडवानी गायक अपने अन्दाज़ में दर्शकों सुना रहा है विन्सेंट की कहानी, जो सहज ही संजीदगी और भावुकता भरे माहौल में भी दर्शकों के चेहरे पर मधुर मुस्कान ले आता है, हँसी ज़रूर आएगी सुन कर पर ये इक्स्पेरिमेंट मुझे कुछ इस तरह ही लगा जैसे हम ठंडी ठंडी आइसक्रीम के साथ गरमा- गरम गुलाब जामुन का मज़ा ले रहे हो।
उस पचहत्तर मिनिट में आँखे मानो झपकना ही भूल गई हो, विन्सेंट का किरदार निभा रहे डॉ.चैतन्य आठले ने जिस शिदत्त से विन्सेंट के किरदार को जिया और हमारे सामने जिस तरह उसकी तड़प और पीड़ा को पेश किया, लगा की हम सब साक्षी हो गए है उस महान घटना के जिसने हमें हमारा विन्सेंट दिया। मै हृदय से अभिनंदन करती हूँ उस महान कलाकार “विन्सेंट” तथा उसके किरदार को निभाने वाले डॉ. चैतन्य आठले का। यूँ तो हर एक किरदार ने मुझे अंदर तक छुआ है पर वो एक अन्य किरदार जिसने मुझे अपने से सबसे ज़्यादा जोड़ा, वो था विन्सेंट का प्यार भाई थियो, इतना निश्चल प्रेम, इतनी निर्मल भावना, इतना अलौकिक बंधन जो आपको मजबूर कर देगा प्रेम के उन मोतियों को अपनी आँखो से बह जाने देने के लिए जो साक्षी होते है सच्चे प्यार के, एक ऐसा प्यार जो स्वार्थ और परोपकार की भावना से कहीं ज़्यादा ऊपर हो। इस किरदार को निभाने वाले कलाकार शुभम शर्मा ने जिस तरह थियो के प्रेम और वात्सल्य को अपनी अदाकारी से प्रस्तुत किया, शायद उन भाइयों के उस प्रेम और वात्सल्य को लिखने के लिए मेरे शब्द सक्षम नहीं, पर उस प्रेम की अनुभूति सदैव ही मेरे साथ मेरे मन के पिटारे में महफ़ूज़ रहेंगी।

जब अंतिम दृश्य में अजीब आकृतियों से घिरा विन्सेंट तड़पता, बौखलाता अपनी पिस्तौल निकाल कर उसे अपने कनपट्टी पर रखता है और फिर धीरे से उसे अपने पेट पर रख कर चला देता है, तब ऐहसास होता है उसकी भूख का, फिर चाहे वो कला की भूख हो, प्रेम की भूख हो या फिर पेट की। अपनी इसी भूख के साथ वो अपनी कला और प्रेम की विरासत को दुनियाँ वालों को सौंप कर चला जाता है, और हमारे लिए एक प्रश्न छोड़ जाता है की कौन सी भूख ज़्यादा महत्तवपूर्ण होती है पेट कि, प्रेम की या फिर कला की... और इसी के साथ फ़ेड आउट होता है और सभी कलाकार हाथ में विन्सेंट की पैंटिंग्स और मोमबत्ती लिए मंच पर पुनः एक साथ आकर विन्सेंट और उसकी कला के सम्मान में खड़े हो जाते है और इसी के साथ पूरा ऑडिटॉरीयम तालियों की गूँज से सराबोर हो उठता है, तालियों की निरंतर थाप मानो हमसे कह रही हो, “सुनो अब वापस आ जाओ उस समय से” और हम सब सचेतन मन से खड़े हो जाते है उन कलाकारों के सम्मान में जिन्होंने आज हमें एक महान घटना का साक्षी बनाया। आज इस बात को साढ़े तीन साल हो गए है, पर आज अपनी अभिव्यक्ति लिखते समय मुझे यूँ लग रहा था मानो मै अभी भी उसी ऑडिटॉरीयम में बैठी ये सब पुनः देख रही हूँ। मै बधाई देना चाहूँगी इस नाटक के परिकल्पक व निर्देशक डॉ. आनंद कुमार पांडेय को जिनके अथक प्रयास और क्रिएटिव इक्स्पेरिमेंट्स के ज़रिए हमें इस मार्मिक अनुभूति का अवसर मिला, एक बार पुनः विन्सेंट की पूरी टीम को नमन और मेरा प्यार भरा सलाम… लव यू विन्सेंट 

श्रीमती पूजा उपाध्याय पाण्डेय
कला शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय
क्रमांक 02 NTPC कोरबा
kpoojaupadhyay@gmail.com
प्रथम प्रस्तुति एक छायाचित्र।  उर्सुला -माया डहरिया , विन्सेंट - डॉ. चैतन्य आठले
नाटक - विन्सेंट अ फ़्लैश्बैक