सोमवार, 4 मई 2020

कला, कलाकार और दर्शक



जैसे त्रिदेव एक शब्द हैपर सूचक है तीन देवताओं का वैसे ही कला (फिर चाहे वो कोई भी कला होसमावेश है तीन स्तंभो का जिसे हम कलाकलाकार और दर्शक कहते हैकहने को तो ये तीन अलग-अलग संज्ञाए है परंतु इनका ध्येय  पर्याय एक ही हैतथा किसी एक की अनुपस्थिति उसे पूर्ण नहीं बना सकती। कला ‘सृजन’ है ‘कलाकार’ काऔर ‘मनोरंजनहै ‘दर्शक’ का और कलाकार और दर्शक मिलकर गढ़ते है ‘कला’ को,कितना अनूठा है ये संगमअब एसे में इनको एक दूजे से पृथक कर देखना भला कैसे सम्भव हैकिसी एक के बिना दूजे का क्या अर्थ। आख़िर कला होती कलाकार से है और होती दर्शक के लिए हैपर ज़रा सोचिए की कलाकार और दर्शक दोनो हो और कला ही  हो तो उन दोनो का अस्तित्व महज़ दो अपरिचित व्यक्तित्व से ज़्यादा और कुछ क्या होगापर बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं हैजिस तरह कला कलाकार और दर्शक के बीच की कड़ी है उसी तरह ये दोनो भी कला रूपी नदी के वो दो किनारे हैजिसमें यदि एक ना होतो यह नदी दिशाहीन हो जाएगीक्यूँकि इन्ही किनारों के बीच कला रूपी नदी अपनी आत्मीयता को संजोये लय और ताल में मदमस्त होअपने उस गंतव्य को पहुँचती है जहाँ वो आनंद अनुभूति रूपी सागर में मिलअपनी इस रोमांचकारी यात्रा को पूर्ण कर उस परम आत्मिक सुख को प्राप्त करती है जो कला सृजन का अंतिम लक्ष्य है। 
यदि कला को निश्चल दृष्टि से देखा जाए तो समाज में दो अभिन्न वर्ग दिखाई पड़ते है एक ‘कलाकार’ और दूसरा ‘दर्शक’ जो अपने पारस्परिक अंतरसंबंध से कलाजगत की लय को बनाए रखते हैएक जो उसका सृजन करता है और दूसरा जो उसका सेवन करता हैतथा इस परिप्रेक्ष्य में दोनो ही 
बहुत महत्तवपूर्ण है। इनका सक्रिय आपसी सम्बंध ही कला के पूर्ण अस्तित्व को सार्थक करता हैएक सच्चे कलाकार की हमेशा यही चाहत होती है की उसे अच्छे दर्शक मिले और एक अच्छे दर्शक को एक सच्चे कलाकार कीऔर इसी तरह निर्माण होता है एक सशक्त कला कासशक्त इसलिए क्यूँकि कला का उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन या आनंद की अनुभूति करना मात्र नहीं अपितु यह माध्यम है कलाकार के विचारों तथा भावनाओं को एक सशक्त रूप में प्रस्तुत करने काजहाँ वो दर्शकों के माध्यम से  सिर्फ़ अपनी कला को सम्मान दिलाता है अपितु समाज को एक नया दृष्टिकोणएक नई सोच प्रदान करता और इसीलिए कहाँ भी गया है कि “कला समाज का दर्पण होती है”, शायद इसीलए सदियों से कला को एक शक्तिशाली माध्यम माना गया है क्यूँकि इसमें समाज को गढ़ने तथा बदलने दोनो की ताक़त होती है।
कलाकलाकार और दर्शक का ये सम्बंध सिर्फ़ तात्कालिक नहीं बल्कि समयावधि के भी परे का हैअब देखिए ना पाषाण काल में बनी भीमभेटका के शिलाचित्र आज भी दर्शकों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैऔर इतनी सदियों बाद भी ये शीलाचित्र अपनी कहानी दर्शकों को चीख़ चीख़ कर कह रहे हैअजंता की गुफ़ाओं में बने भित्ति चित्र आज भी उन कलाकारों की प्रवीणता तथा निष्ठा की गवाही दर्शकों को दे रहे है। जैसा कि मैंने पहले ही कहाँ है कि यह बात किसी एक कला विशेष के लिए नहीं अपितु सभी कलाओं के लिए उपयुक्त हैसदियों पहले लिखा गया नाटक आज भी जब मंच पर प्रस्तुत होता है तो वो उसी सहजता से दर्शकों द्वारा सराहा जाता हैआज भी सदियों से चली  रही शास्त्रीय प्रदर्शनकारी कलाओं की जब प्रस्तुति होती है तब भी वह दर्शकों को उतनी ही गहराई से जोड़ लेती है जितना गहरा उनका इतिहास। कहने का तात्पर्य यह है की कला वो जादुई सेतु है जो समय से परे सच्चे कलाकार को उसके सच्चे दर्शक से मिलवा ही देती है।
 यदि कला को एक सार्थक परिवेश देना है तो बहुत ज़रूरी है इन दों पहलुओं का एक दूसरे के साथ एक माक़ूल रिश्ता क़ायम करनाये वो त्रिकोणी आयाम है जहाँ हर एक दूसरे के वजूद को मानी बनाता है। कला है तो कलाकार हैकलाकार है तो दर्शक हैऔर दर्शक है तो कला है।

पूजा आनंद        

7 टिप्‍पणियां:

  1. Very interesting read Pooja, though I wish to add an aspect of Art(कला)which I believe every Artist (कलाकार) will agree that when the creative urge in an artist is at its peak and he/she creates just for the joy,love and satisfaction of projecting his/her ideas through his/her chosen art form and feels complete and somewhere connects with the creator,is when he/she becomes an artist. Examples, the cave paintings of Bhimbetka, murals of Ajanta or the paintings of Van Gough (who was never acknowledged during his life time). These artists never created or had stopped creating thinking whether there will be any one to appreciate.
    Thus, people who appreciate art can make an artist famous or may inspire him/her to do even better, but is incapable of instigating the urge of creativity in him/her. That urge comes from within.

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  2. अच्छा लेख है! सृजन ,जीवन से साकार होती है ...कला ,कलाकार और दर्शक तो एक दूसरे के पूरक है आपने सही लिखा है लेकिन दर्शक से कहीं अधिक जिम्मेदारी कलाकार की होती है कि वह अपने दर्शक को किस जीवन से जोड़ रहा है... जीवन है तो मनोरंजन के अनेक साधन भी.. लेकिन एक कलाकार होते हुए जब दर्शक, कला और मनोरंजन को लेकर वह सोचता है तो उसकी सोच और उसका कला कर्म आईने की तरह दर्शक के सामने स्पष्ट दिख जाता है! इसलिए मैं सोचता हूँ कलाकार होते हुए हम अपनी जिम्मेदारी को नहीं भूले... इस लेख में एक कलाकार की जिम्मेदारी पर भी बात होनी चाहिए ...बाकी लेख अच्छा है! मेरी बधाई स्वीकारें पूजा....

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  3. कला कलाकार और दर्शक ये तीनों ही अपने आप में एक महत्वपूर्ण विषय है। इनमें जितना विस्तार है उतनी ही गहराई भी है। लेकिन तुमने जिस प्रकार तीनों विषयों को मिलाकर एक सूत्र में पिरोया है और अपनी भावनाओं को शब्दों रूप में प्रस्तुत किया है उसके लिए तुम बधाई की पात्र हो...

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  4. सबसे पहले कलाकार किसी कला कृति की सृजन करता है वह उसके विचारों का आईना है। उस कलाकृति से जब तक कोई दर्शक जुड़ नहीं जाता तब तक वह सिर्फ कलाकार की अभिव्यक्ति है और फिर उस कला के प्रदर्शन से वह दर्शकों की भी अभिव्यक्ति हो जाती है। उस कला का विस्तार होने लगता है। यही कला, कलाकार व दर्शकों की अन्तर समबन्ध है। पूजा आपने इस तरह के आलेख से कला रसिकों के बीच परिचर्चा के लिए बेहतरीन मंच उपलब्ध कराया है। बहुत बधाई।

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