शुक्रवार, 8 मई 2020

बड़े भाई साहब मेरी नज़र से




आमतौर पर मेरा रायपुर आना जाना लगा ही रहता है, कुछ महीने पहले ऐसे ही किसी काम से कुछ एक दो दिनो के लिए मेरा रायपुर जाना हुआ उस समय मेरे पतिदेव आनंद भी वहाँ मौजूद थे, और उन्होंने ही मुझे बताया कि आज शाम को सुभाष मिश्रा भैया के स्टूडीओ थिएटर जनमंच में योगेन्द्र चौबे सर द्वारा निर्देशित नाटक बड़े भाईसाहब खेला जाना है, यूँ तो नाटक का नाम सुनते ही मेरा मन प्रसन्न हो जाता है, और क्यूँकि इस नाटक की प्रस्तुति मैंने पहले भी खैरागढ़ में देखी थी मै और ज़्यादा उत्त्साहि थी। उस दिन के अपने सारे काम हमने जल्दी-जल्दी निपटाए और समय पर हम निर्धारित स्थान पर पहुँच गए। नाटक के जल्द से जल्द शुरू होने की व्याकुलता तो हमारे अंदर थी ही, पर उसी के साथ-साथ वहाँ उपस्थित गुरुजनों, वरिष्ठ कलाकारों तथा घनिष्ठ मित्रों से मिलने की प्रसन्नता भी उतनी ही थी, सभी से मिलकर हाल चाल पूछ सभी अपने-अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गए। 
नाटक की औपचारिकता का पालन करते हुए पहली, दूसरी व तीसरी घंटी के बजते ही मंच पर एक बेहतरीन ऊर्जा के साथ शुरुआत होती है एक ऊर्जावान, मासूम और बचपने की तरोताज़गी से सराबोर, समाज की शिक्षा व्यवस्था पर ऊँगली उठाते नाटक बड़े भाईसाहब की, जो शुरू तो बहुत ही मौज मस्ती से होता है, पोशमपा भाई पोशमपा गाते हुए मंच पर कुछ बच्चे आ धमकते है, और अपनी ही मौज में उस अल्हड़ बच्च्पन को हमें दिखलाते है जो आज की स्क्रीन दुनिया में कही खो गया है, और ऐसे ही मस्ती करते कराते नाटक कुछ ऐसे संजीदा प्रश्नों को उकेरता है जो आपको ढर्रेदार शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करने पर मजबूर कर देगा, पर मज़े की बात तो ये है की इतनी संजीदगी में भी नाटक आपकी हँसी एक पल के लिए भी ओझल नहीं होने देता, अपने ही अन्दाज़ में खेला गया ये नाटक बच्चों की मस्ती, ठिठोलि, पतंगबाज़ी के बीच चुपके से आपके मन को ऐसे झँझोर देगा की आप यका यक ख़ुद से ही सवाल करने लगेंगे कि… हाँ ऐसा ही तो होता है, बिना मतलब की रट्टु तोता वाली शिक्षा प्रणाली का बोझ ढोने से।
शुरुआत से लेकर अंत तक नाटक अपनी एक मज़बूत पकड़ बनाए दर्शकों को अपने साथ कुछ ऐसे जोड़ लेता है मानो ये कहानी उन्होंने पहले भी कही देखी या सुनी हो, जो की इस नाटक के सफल मंचन को प्रत्यक्ष प्रमाणित करता है। 80 और 90 के दशक के लोकप्रिय खेल गीतों पोशमपा भाई पोशमपा के साथ एक अन्य गीत उड़ चली है मेरी पतंग, ये पतंग वो पतंग आदि का संगीतमय प्रयोग जो की डॉ. योगेन्द्र चौबे की विशेषता भी है को, बहुत ही रचनात्मक तरीक़े से नाटक में जोडा गया है, जो दर्शकों को अपने बचपन की यादों का एक बहुत ही सुखमय झरोखा प्रदान करता है, संगीत की धुन के साथ दर्शक सहजता से धीरे-धीरे सर को हिलाते झूम उठते है, जो की एक सफल निर्देशन का परिचायक है, क्यूँकि कला के बारे में ये हमेशा कहा गया है कि कोई भी कला सही मायने में तभी सफल साबित होती है जब उसका तदात्म्य दर्शक के साथ उसी तरह से बैठे जिस भाव से कलाकार ने उसकी रचना की है। संगीतमय गीतों के अलावा मंचीय कलाकारों की अदाकारी ने भी दर्शकों की ख़ूब तालियाँ और सराहना बटोरी, एक सफल अदाकारी का परिचय देते हुए, धाराप्रवाह संवाद की लड़ी मंचीय कलाकारों की उत्तकृष्टता तथा प्रभावशाली नेतृत्व को दर्शाती है।
यह मेरा सौभाग्य रहा है की इस नाटक का मंचन देखने का अवसर मुझे दो बार मिला पहली बार मैंने यह नाटक इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय में देखा था, जब मै वहाँ की छात्रा हुआ करती थी, और दूसरी बार अभी कुछ दिन पहले रायपुर में, इसके अलावा इसके कई और सफल मंचन देश के अन्य हिस्सों में हो चुके है, दर्शक के रूप में इस नाटक को देखना मेरे लिए एक बहुत ही सुखद अनुभव रहा है, क्यूँकि कही न कही मैंने भी अपने छात्र जीवन में (जब मै विद्यालय में पढ़ती थी) इस ना समझ पाने वाले भाव को जिया और महसूस किया है जब पढ़ाई के बढ़ते बोझ के साथ आप नहीं समझ पाते है की आख़िर इस रट्टु तोता वाली प्रणाली का मेरे जीवन में  भला क्या महत्व, इसलिए दर्शक की दृष्टि से ये नाटक जितना सफल है उतना समाज को आइना दिखाने की प्रक्रिया में भी यह नाटक एक अहम भूमिका निभाता नज़र आता है, जो समाज के बुद्धिजीवियों के समक्ष एक अहम सवाल को प्रदर्शित करता है। यह नाटक मुंशी प्रेम चंद जी की कहानी “बड़े भाई साहब” पर आधारित है जिसकी परिकल्पना एवं निर्देशन डॉ.योगेन्द्र चौबे जी के द्वारा किया गया है, मै इस नाटक से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति एवं गुडी रायगढ़ को बहुत बधाई देती हूँ और आशा करती हूँ की भविष्य में भी हमें ऐसे नाटक लगातार देखने को मिलते रहे, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ समाज के लिए उपयुक्त संदेश भी हो, क्यूँकि यही कला का असली ध्येय है।
छायाचित्र साभार- अख्तर अली जी के फेसबुक वाल से 

पूजा आनंद 

4 टिप्‍पणियां:

  1. यह नाटक मैंने कई बार और कई समूह द्वारा देखा है और हर बार इस नाटक के नए अर्थ खुलते हैं सचमुच यह नाटक कर अपने आप में एक प्रयोगशाला है

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  2. बड़ा ही सुंदर लेख है ये इसको पढ़ कर ऐसा लगा जैसे इस नाटक को जैसे हमने समझा था ये वैसा ही है।
    इस नाटक में मैंने भी अभिनय किया है, डॉ योगेन्द्र चौबे जी के निर्देशन में उनकी शैली अपने आप में अनोखी होती है।वो कभी संगीत तो कभी कोरस तो कभी कथानक के जरिये कुछ नया प्रस्तुत करते रहते है जो बिलकुल नया और अक्सर छात्रों के लिए सिखने के नये रास्ते खोलता है।

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  3. बड़े भाई साहब पढ़ कर ही मज़ा आ जाता है...फिर देखने का ज़ायका चखना...माशाअल्लाह

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