शुक्रवार, 29 मई 2020

हर किरदार की जान इरफ़ान




    एक व्यक्ति अनेकों किरदार…और हर एक किरदार की अपनी एक अनोखी छाप, फिर चाहे वो पान सिंह तोमर का एक बाग़ी फ़ौजी हो, मदारी का बदला लेता पिता निर्मल, नॉक आउट का बंदूक़ की नोक पर डरा, सहमा सा एक क्रिमनल टोनी खोसला, थैंक यू मूवी का ठरकी विक्रम बॉस, लाइफ़ ऑफ पाई का अपनी आपबीती सुनाता पाई पटेल, रोग का संजीदा आशिक़ उदय राठोर, बिल्लु की कहानी का एक समर्पित सच्चा दोस्त बिल्लु, हिंदी मिडीयम का अपनी ही एक दुनिया में रहने वाला सबको ख़ुश रखने वाला व्यवसायी राज बत्रा, लंच बॉक्स के संजीदा प्रेमी साजन फ़रनैंडिस, क़रीब क़रीब सिंगल का दिल फैंक आशिक़ योगी या फिर पिकु का हैरान परेशान पर फिर भी चुटकियाँ लेता किरदार राणा और ना जाने कितने नाम और उनकी ना जाने कितनी कहानियाँ, और उन सब को जी कर अमर कर देने वाला एक कलाकार ‘इरफ़ान’। 
छायाचित्र साभार - IMDb

मै इरफ़ान जी की/का बहुत बड़ी/बड़ा फ़ैन हूँ… असंख्य लोग है इस बात का दावा करने वाले, और हो भी क्यूँ ना, वो बेहतरीन अदाकारी, वो बोलती आँखे, वो रुहानि चेहरा और वो दिलकश आवाज़ जो आपको सुनने पर मजबूर कर दे, भला मुमकिन है ऐसे नायक को ना चाहना। दोस्तों जिस तरह पानी का कोई रंग या आकार नहीं होता, वो जिसमें में मिल जाए, और जहाँ रह जाए  वहीं उसका रंग और आकार बना जाता है, ठीक वैसे ही होता है एक मंझा हुआ अभिनेता, जो जिस भी किरदार को निभाता है उसमें ख़ुद को इस तरह रचा बसा लेता है मानो वो हमेशा से वहीं है, जिसे हम अभी इस वक़्त देख रहे है, और फिर बिना किसी परीक्षण और सवाल के हम उस किरदार को यथार्थ मान लेते है और यह भूल जाते है की वो महज़ एक किरदार है जिसे हमारा प्यारा अभिनेता अपनी अदाकारी से निभा रहा था। कितना उच्च स्तरीय सम्मोहन है ये, जिसमें अपनी अदाकारी के उड़नखटोले में बैठा कर कलाकार आपको ऐसी यात्रा कराता है जिसमें आप कई कहानियों के साक्षी बन ऐसे अनुभवों से गुज़रतें है जो आपको भीतर तक उस अभिनय के उत्तम रस में सराबोर कर देता है, और ऐसी ही सम्मोहन शक्ति के धनी रहे महान अभिनेता, बेमिसाल व्यक्तित्व और सबके प्यारे कलाकार इरफ़ान ख़ान, जिनके सम्मोहन के बहाव की निरंतरता उन महान नदियों के समान है जो आदिकाल से निरंतर बहते हुए सभी को अपने मीठे पानी से तृप्त करते आ रही है। 

कहते है की इस संसार में सब कुछ नश्वर है, मतलब एक ना एक दिन हर एक चीज़ और हर एक व्यक्ति को ख़त्म हो जाना है, पर एसे में भी कला वो संजीवनी है जो कलाकार को कभी मरने नहीं देती, बशर्ते उसका शरीर नष्ट हो जाए पर उसकी कला हमेशा उसे ज़िंदा रखती है। इरफ़ान आज इस दुनियाँ में नहीं है पर उनकी बेबाक़ हँसी, उनकी बेहतरीन अदाकारी, उनका दिलकश अन्दाज़, उनकी बोलती निगाहें, उनका वो सजीव अभिनय और उनकी हर एक बात हमेशा धड़कन बनकर उनके चाहने वालों के दिल में धड़कती रहेगी,  क्यूँकि हर कोई जानता है कि वो “इरफ़ान ख़ान जी का कितना/कितनी बड़ा/बड़ी फ़ैन है”…. वी लव यू इरफ़ान सर 
हमारे शब्द शायद कम पड़ जाए आपको याद करने में पर जज़्बातों और भावनाओं का वो सागर कभी कम नहीं पड़ सकता जिसकी हर बूँद पर ‘इरफ़ान’ लिखा है, और जिसकी हर एक लहर हर एक किरदार का झरोखा लिए कुछ ऐसे गुज़रती है मानो आपको छू कर फिर कुछ याद दिलाना चाहती हो, याद उस व्यक्ति की जो कहानी है इन सब किरदारों की….एक व्यक्ति अनेक किरदार इरफ़ान ख़ान।
                                         
                                                                                        पूजा आनंद 

रविवार, 24 मई 2020

छत्तीसगढ़ी सिनेमा का नया चेहरा… फ़िल्म- गाँजे की कली


    दोस्तों किसी ने बहुत ख़ूब कहा है, की यदि आपको अपनी जगह और अपना अधिकार चाहिए तो आपका उसे पाने के लिए सही दिशा में क़दम बढ़ाना बहुत ज़रूरी हो जात है, सिर्फ़ डिमांड करने से काम नहीं चलता, आपको ख़ुद को उस जगह के लिए तैयार कर उसके लायक भी बनना पड़ता है, और इसी दिशा में हाल ही में यूटूब पर धूम मचा रही छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘गाँजे की कली’ ने एक धमाकेदार शुरुआत की है छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अन्य सिनेमा के समकक्ष लाने में। जैसा कि हम सब जानते है कि लगभग एक डेढ़ साल से या उससे पहले से भी छत्तीसगढ़ी सिनेमा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्सों और सिनेमा घरों में अन्य बॉलीवुड फ़िल्मों के समरूप प्रसारित किए जाने की निरंतर लड़ाई लड़ रहा है, एसे में हमें चाहिए की छत्तीसगढ़ी सिनेमा के अंतर्गत अच्छी फ़िल्मे, अच्छे विषय के साथ, अच्छी अदाकारी लिए, अच्छा संगीत, अच्छे निर्देशन तथा अन्य पेशेवर बारीकियों के साथ दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, जिससे उन्हें भी बॉलीवुड सिनेमा की तरह दर्शकों का प्यार मिल सके। 
निर्देशक - डॉ.योगेन्द्र चौबे 
इस दिशा में, इन सभी बातों का सही संतुलन लिए एक बहुत ही अच्छी कोशिश के रूप में सामने आती है ‘अमृता प्रीतम’ जी की कहानी पर आधारित फ़िल्म ‘गाँजे की कली’। शुरुआत से लेकर अंत तक एक लय में आगे बढ़ती यह फ़िल्म मुख्य किरदार अघनिया के बेबाक़ व्यक्तित्व और स्त्रियों के अस्तित्व को तलाशती उसकी क्रांतिकारी सोच के आस-पास से गुज़रती है। अपने अस्तित्व को तलाशती ‘अघनिया’ कई सवालों को टटोलते अपनी आत्मनिर्भरता को अपने अन्दाज़ में बयान करते नज़र आती है, जिसमें वो हर क़दम पर समाज की रूढ़िवादिता को चुनौती देती अपनी ख़ुशी की तलाश में हर उस ढकोलसे को तोड़ती जाती है जो उसे औरत होने के भार से दबाते चले आ रहे है।
फ़िल्म में अघनिया का किरदार निभाती नेहा शर्राफ़ ने अपनी उम्दा अदाकारी से एक औरत के कई रूपों को बख़ूबी निभाया है जिससे उनके किरदार की सजीवता और भी अधिक बढ़ जाती है इसके अलावा उनके माँ की भूमिका में उपासना वैष्णव जी जो की छत्तीसगढ़ी सिनेमा का एक बड़ा नाम है बहुत ही उम्दा अभिनय प्रस्तुत किया है इसी के साथ अघनिया के पिता के किरदार में दीपक विराट तिवारी को एक बहुत ही अलग अन्दाज़ में देखा जा सकता है, जो की हबीब तनवीर जी के नया थिएटर के बहुत ही ख़ास कलाकार रहे है जिन्होंने नाटक चरण दास चोर में मुख्य भूमिका में हमेशा ही दर्शकों का ख़ूब प्यार पाया है, अघनिया के अधेड़ उम्र के पति के रूप में बहुत ही परिपक्व अभिनय का प्रदर्शन करते नज़र आते है कृष्ण कांत तिवारी जी, उसकी सहेली इमली पृथा चंद्राकर, उससे सहानुभूति रखता उसके दोस्त की भूमिका निभाई है धीरज सोनी ने जो वर्तमान में रंगकर्म में सक्रिय है, ससुराल में उसके दुःख दर्द को मरहम लगती रौताईंन के रूप में अपने हुनर को बिखेरती नज़र आती है बेहतरीन कलाकार तथा गायिका पूनम विराट तिवारी जी जिन्होंने इसी फ़िल्म में करमा करमा गीत गाया है, तथा प्रेम को तलाशती अघनिया को अपने प्यार के मोहपाश में डालता मुख्य किरदार सरदार जी की भूमिका निभाई है दुर्वेश आर्य ने, इन सभी कलाकारों के सजीव अभिनय से यह फ़िल्म एक मानक स्तर को स्थापित करती है, जो छत्तीसगढ़ी सिनेमा को एक नया रूप देने में अहम कड़ी मानी जा सकती है।
शूटिंग की एक झलक 

अभिनय के अलावा जो दूसरा बहुत ही अहम हिस्सा किसी फ़िल्म का माना जाए तो वो है उसका संगीत जिसकी पूर्ति इस फ़िल्म में भरपूर हुई है, जो सबसे ख़ूबसूरत बात इसके संगीत में है वो यह है की इसमें छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का प्रयोग बहुत ही पारंपरिक तरीक़े से किया गया है, जो इसके संगीत को और भी मनोरम बनाता है। 
अगर टेक्निकैलिटी की बात करे तो उसमें भी यह फ़िल्म अपनी उत्तकृष्टता को बनाए हुए दिखाई देती है, निर्देशन से लेकर एडिटिंग तक में  आपको इस फ़िल्म की परिपक्वता का परिचय मिलता रहेगा। इस फ़िल्म की  पटकथा भारत के प्रसिद्ध पटकथा लेखक अशोक मिश्र जी द्वारा किया गया है, इस बेहतरीन फ़िल्म का निर्देशन किया है डॉ॰ योगेन्द्र चौबे जी ने तथा कमाल की एडिटिंग का श्रेय जाता है असीम सिन्हा जी को तथा एक बेहतरीन प्रस्तुति को बनाने में अपना सहयोग दिया फ़िल्म के निर्माता अशोक चंद्राकर जी तथा आस्था कपिल चौबे जी ने और इसके अलावा सधे हुए तरीक़े से जिन्होंने इस पूरी फ़िल्म को केमरे से क़ैद किया वो है राजिब शर्मा जी।
एक बेहतरीन प्रोडक्शन के लिए एक उम्दा टीम का होना बहुत ही ज़रूरी होता है, और वो चीज़ आपको इस फ़िल्म में बख़ूबी देखने को मिलेगी, बेहतरीन टीम वर्क के साथ प्रस्तुत की गई यह फ़िल्म निःसंदेह छत्तीसगढ़ी सिनेमा के लिए एक नई दस्तक के रूप में सामने आइ है, बहरहाल अभी इस फ़िल्म का लुत्फ़ आप यूटूब पर उठा सकते है जिसका लिंक लेख के अंत में है, पर फिर भी हम उम्मीद करते है की करोना इस विकट परिस्थिति के टल जाने के बाद हमें इस फ़िल्म का लुत्फ़ सिनेमा घरों में भी उठाने का अवसर मिले और इस फ़िल्म के साथ छत्तीसगढ़ी सिनेमा में ऐसी और फ़िल्में बने ताकि छत्तीसगढ़ी सिनेमा अपने अस्तित्व की तलाश में कामयाब हो, पुनः एक नई उम्मीद, एक नई आशा के साथ इस महा विपदा के बाद छत्तीसगढ़ी सिनेमा का एक नया चेहरा, नई बेहतरीन फ़िल्मों के साथ हमें देखने को मिले यही हमारी कामना है। 


                                                                        पूजा आनंद 

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शुक्रवार, 8 मई 2020

बड़े भाई साहब मेरी नज़र से




आमतौर पर मेरा रायपुर आना जाना लगा ही रहता है, कुछ महीने पहले ऐसे ही किसी काम से कुछ एक दो दिनो के लिए मेरा रायपुर जाना हुआ उस समय मेरे पतिदेव आनंद भी वहाँ मौजूद थे, और उन्होंने ही मुझे बताया कि आज शाम को सुभाष मिश्रा भैया के स्टूडीओ थिएटर जनमंच में योगेन्द्र चौबे सर द्वारा निर्देशित नाटक बड़े भाईसाहब खेला जाना है, यूँ तो नाटक का नाम सुनते ही मेरा मन प्रसन्न हो जाता है, और क्यूँकि इस नाटक की प्रस्तुति मैंने पहले भी खैरागढ़ में देखी थी मै और ज़्यादा उत्त्साहि थी। उस दिन के अपने सारे काम हमने जल्दी-जल्दी निपटाए और समय पर हम निर्धारित स्थान पर पहुँच गए। नाटक के जल्द से जल्द शुरू होने की व्याकुलता तो हमारे अंदर थी ही, पर उसी के साथ-साथ वहाँ उपस्थित गुरुजनों, वरिष्ठ कलाकारों तथा घनिष्ठ मित्रों से मिलने की प्रसन्नता भी उतनी ही थी, सभी से मिलकर हाल चाल पूछ सभी अपने-अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गए। 
नाटक की औपचारिकता का पालन करते हुए पहली, दूसरी व तीसरी घंटी के बजते ही मंच पर एक बेहतरीन ऊर्जा के साथ शुरुआत होती है एक ऊर्जावान, मासूम और बचपने की तरोताज़गी से सराबोर, समाज की शिक्षा व्यवस्था पर ऊँगली उठाते नाटक बड़े भाईसाहब की, जो शुरू तो बहुत ही मौज मस्ती से होता है, पोशमपा भाई पोशमपा गाते हुए मंच पर कुछ बच्चे आ धमकते है, और अपनी ही मौज में उस अल्हड़ बच्च्पन को हमें दिखलाते है जो आज की स्क्रीन दुनिया में कही खो गया है, और ऐसे ही मस्ती करते कराते नाटक कुछ ऐसे संजीदा प्रश्नों को उकेरता है जो आपको ढर्रेदार शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करने पर मजबूर कर देगा, पर मज़े की बात तो ये है की इतनी संजीदगी में भी नाटक आपकी हँसी एक पल के लिए भी ओझल नहीं होने देता, अपने ही अन्दाज़ में खेला गया ये नाटक बच्चों की मस्ती, ठिठोलि, पतंगबाज़ी के बीच चुपके से आपके मन को ऐसे झँझोर देगा की आप यका यक ख़ुद से ही सवाल करने लगेंगे कि… हाँ ऐसा ही तो होता है, बिना मतलब की रट्टु तोता वाली शिक्षा प्रणाली का बोझ ढोने से।
शुरुआत से लेकर अंत तक नाटक अपनी एक मज़बूत पकड़ बनाए दर्शकों को अपने साथ कुछ ऐसे जोड़ लेता है मानो ये कहानी उन्होंने पहले भी कही देखी या सुनी हो, जो की इस नाटक के सफल मंचन को प्रत्यक्ष प्रमाणित करता है। 80 और 90 के दशक के लोकप्रिय खेल गीतों पोशमपा भाई पोशमपा के साथ एक अन्य गीत उड़ चली है मेरी पतंग, ये पतंग वो पतंग आदि का संगीतमय प्रयोग जो की डॉ. योगेन्द्र चौबे की विशेषता भी है को, बहुत ही रचनात्मक तरीक़े से नाटक में जोडा गया है, जो दर्शकों को अपने बचपन की यादों का एक बहुत ही सुखमय झरोखा प्रदान करता है, संगीत की धुन के साथ दर्शक सहजता से धीरे-धीरे सर को हिलाते झूम उठते है, जो की एक सफल निर्देशन का परिचायक है, क्यूँकि कला के बारे में ये हमेशा कहा गया है कि कोई भी कला सही मायने में तभी सफल साबित होती है जब उसका तदात्म्य दर्शक के साथ उसी तरह से बैठे जिस भाव से कलाकार ने उसकी रचना की है। संगीतमय गीतों के अलावा मंचीय कलाकारों की अदाकारी ने भी दर्शकों की ख़ूब तालियाँ और सराहना बटोरी, एक सफल अदाकारी का परिचय देते हुए, धाराप्रवाह संवाद की लड़ी मंचीय कलाकारों की उत्तकृष्टता तथा प्रभावशाली नेतृत्व को दर्शाती है।
यह मेरा सौभाग्य रहा है की इस नाटक का मंचन देखने का अवसर मुझे दो बार मिला पहली बार मैंने यह नाटक इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय में देखा था, जब मै वहाँ की छात्रा हुआ करती थी, और दूसरी बार अभी कुछ दिन पहले रायपुर में, इसके अलावा इसके कई और सफल मंचन देश के अन्य हिस्सों में हो चुके है, दर्शक के रूप में इस नाटक को देखना मेरे लिए एक बहुत ही सुखद अनुभव रहा है, क्यूँकि कही न कही मैंने भी अपने छात्र जीवन में (जब मै विद्यालय में पढ़ती थी) इस ना समझ पाने वाले भाव को जिया और महसूस किया है जब पढ़ाई के बढ़ते बोझ के साथ आप नहीं समझ पाते है की आख़िर इस रट्टु तोता वाली प्रणाली का मेरे जीवन में  भला क्या महत्व, इसलिए दर्शक की दृष्टि से ये नाटक जितना सफल है उतना समाज को आइना दिखाने की प्रक्रिया में भी यह नाटक एक अहम भूमिका निभाता नज़र आता है, जो समाज के बुद्धिजीवियों के समक्ष एक अहम सवाल को प्रदर्शित करता है। यह नाटक मुंशी प्रेम चंद जी की कहानी “बड़े भाई साहब” पर आधारित है जिसकी परिकल्पना एवं निर्देशन डॉ.योगेन्द्र चौबे जी के द्वारा किया गया है, मै इस नाटक से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति एवं गुडी रायगढ़ को बहुत बधाई देती हूँ और आशा करती हूँ की भविष्य में भी हमें ऐसे नाटक लगातार देखने को मिलते रहे, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ समाज के लिए उपयुक्त संदेश भी हो, क्यूँकि यही कला का असली ध्येय है।
छायाचित्र साभार- अख्तर अली जी के फेसबुक वाल से 

पूजा आनंद 

सोमवार, 4 मई 2020

कला, कलाकार और दर्शक



जैसे त्रिदेव एक शब्द हैपर सूचक है तीन देवताओं का वैसे ही कला (फिर चाहे वो कोई भी कला होसमावेश है तीन स्तंभो का जिसे हम कलाकलाकार और दर्शक कहते हैकहने को तो ये तीन अलग-अलग संज्ञाए है परंतु इनका ध्येय  पर्याय एक ही हैतथा किसी एक की अनुपस्थिति उसे पूर्ण नहीं बना सकती। कला ‘सृजन’ है ‘कलाकार’ काऔर ‘मनोरंजनहै ‘दर्शक’ का और कलाकार और दर्शक मिलकर गढ़ते है ‘कला’ को,कितना अनूठा है ये संगमअब एसे में इनको एक दूजे से पृथक कर देखना भला कैसे सम्भव हैकिसी एक के बिना दूजे का क्या अर्थ। आख़िर कला होती कलाकार से है और होती दर्शक के लिए हैपर ज़रा सोचिए की कलाकार और दर्शक दोनो हो और कला ही  हो तो उन दोनो का अस्तित्व महज़ दो अपरिचित व्यक्तित्व से ज़्यादा और कुछ क्या होगापर बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं हैजिस तरह कला कलाकार और दर्शक के बीच की कड़ी है उसी तरह ये दोनो भी कला रूपी नदी के वो दो किनारे हैजिसमें यदि एक ना होतो यह नदी दिशाहीन हो जाएगीक्यूँकि इन्ही किनारों के बीच कला रूपी नदी अपनी आत्मीयता को संजोये लय और ताल में मदमस्त होअपने उस गंतव्य को पहुँचती है जहाँ वो आनंद अनुभूति रूपी सागर में मिलअपनी इस रोमांचकारी यात्रा को पूर्ण कर उस परम आत्मिक सुख को प्राप्त करती है जो कला सृजन का अंतिम लक्ष्य है। 
यदि कला को निश्चल दृष्टि से देखा जाए तो समाज में दो अभिन्न वर्ग दिखाई पड़ते है एक ‘कलाकार’ और दूसरा ‘दर्शक’ जो अपने पारस्परिक अंतरसंबंध से कलाजगत की लय को बनाए रखते हैएक जो उसका सृजन करता है और दूसरा जो उसका सेवन करता हैतथा इस परिप्रेक्ष्य में दोनो ही 
बहुत महत्तवपूर्ण है। इनका सक्रिय आपसी सम्बंध ही कला के पूर्ण अस्तित्व को सार्थक करता हैएक सच्चे कलाकार की हमेशा यही चाहत होती है की उसे अच्छे दर्शक मिले और एक अच्छे दर्शक को एक सच्चे कलाकार कीऔर इसी तरह निर्माण होता है एक सशक्त कला कासशक्त इसलिए क्यूँकि कला का उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन या आनंद की अनुभूति करना मात्र नहीं अपितु यह माध्यम है कलाकार के विचारों तथा भावनाओं को एक सशक्त रूप में प्रस्तुत करने काजहाँ वो दर्शकों के माध्यम से  सिर्फ़ अपनी कला को सम्मान दिलाता है अपितु समाज को एक नया दृष्टिकोणएक नई सोच प्रदान करता और इसीलिए कहाँ भी गया है कि “कला समाज का दर्पण होती है”, शायद इसीलए सदियों से कला को एक शक्तिशाली माध्यम माना गया है क्यूँकि इसमें समाज को गढ़ने तथा बदलने दोनो की ताक़त होती है।
कलाकलाकार और दर्शक का ये सम्बंध सिर्फ़ तात्कालिक नहीं बल्कि समयावधि के भी परे का हैअब देखिए ना पाषाण काल में बनी भीमभेटका के शिलाचित्र आज भी दर्शकों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैऔर इतनी सदियों बाद भी ये शीलाचित्र अपनी कहानी दर्शकों को चीख़ चीख़ कर कह रहे हैअजंता की गुफ़ाओं में बने भित्ति चित्र आज भी उन कलाकारों की प्रवीणता तथा निष्ठा की गवाही दर्शकों को दे रहे है। जैसा कि मैंने पहले ही कहाँ है कि यह बात किसी एक कला विशेष के लिए नहीं अपितु सभी कलाओं के लिए उपयुक्त हैसदियों पहले लिखा गया नाटक आज भी जब मंच पर प्रस्तुत होता है तो वो उसी सहजता से दर्शकों द्वारा सराहा जाता हैआज भी सदियों से चली  रही शास्त्रीय प्रदर्शनकारी कलाओं की जब प्रस्तुति होती है तब भी वह दर्शकों को उतनी ही गहराई से जोड़ लेती है जितना गहरा उनका इतिहास। कहने का तात्पर्य यह है की कला वो जादुई सेतु है जो समय से परे सच्चे कलाकार को उसके सच्चे दर्शक से मिलवा ही देती है।
 यदि कला को एक सार्थक परिवेश देना है तो बहुत ज़रूरी है इन दों पहलुओं का एक दूसरे के साथ एक माक़ूल रिश्ता क़ायम करनाये वो त्रिकोणी आयाम है जहाँ हर एक दूसरे के वजूद को मानी बनाता है। कला है तो कलाकार हैकलाकार है तो दर्शक हैऔर दर्शक है तो कला है।

पूजा आनंद